यह स्वागत योग्य तो है कि सुप्रीम कोर्ट ने स्कूलों, अस्पतालों, हाईवे, रेलवे स्टेशनों और अन्य सार्वजनिक स्थानों से आवारा कुत्तों को हटाने का निर्देश पारित कर दिया, लेकिन बात तब बनेगी, जब ऐसा वास्तव में हो सके। चूंकि शीर्ष कोर्ट ने आवारा कुत्तों के साथ बेसहारा पशुओं को भी सार्वजनिक स्थलों से हटाने का निर्देश दिया है, इसलिए यह सहज ही समझा जा सकता है कि स्थानीय निकायों की चुनौती बढ़ गई है।

अभी उनके पास इतने संसाधन ही नहीं हैं कि वे यह काम कर सकें। संसाधनों के अभाव के साथ ही उनके पास इच्छाशक्ति भी नहीं है। इसका प्रमाण यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने यह पाया था कि इसी संदर्भ में उसके पहले के आदेश पर अधिकतर राज्यों ने अपना जवाब ही दाखिल नहीं किया। इसी कारण उसे राज्यों के मुख्य सचिवों को तलब करना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट ने आवारा कुत्तों और बेसहारा पशुओं को हटाने के साथ ही उनका टीकाकरण, बंध्याकरण करने और उनके लिए विशेष बाड़े एवं आश्रयस्थल बनाने का भी आदेश दिया है।

यह सब होना ही चाहिए, लेकिन तथ्य यह है कि देश के कई प्रमुख शहरों में भी आवारा कुत्तों और बेसहारा पशुओं के लिए आश्रयस्थल नहीं हैं। स्पष्ट है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल होना एक टेढ़ी खीर है। यह ठीक है कि उसने आठ सप्ताह बाद अपने आदेश के अमल की स्थिति पर रिपोर्ट मांगी है, लेकिन आशंका यही है कि आवारा कुत्तों और बेसहारा पशुओं को हटाने के उसके आदेश का पालन करने के नाम पर दिखावटी कार्रवाई हो सकती है। यदि ऐसा होता है तो समस्या जस की तस रहने वाली है।

अच्छा हो कि सुप्रीम कोर्ट इस पर निगाह रखे कि उसके आदेश पर सही तरह अमल हो रहा है या नहीं? यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि उसके ऐसे कई आदेशों पर अब तक अमल नहीं हो सका है। इनमें से एक यातायात में बाधक धार्मिक स्थलों को हटाने का आदेश है। आवारा कुत्तों और बेसहारा पशुओं को सार्वजनिक स्थलों से हटाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सही तरह अमल तब तक संभव नहीं, जब तक राज्य सरकारें गंभीरता का परिचय नहीं देतीं।

सुप्रीम कोर्ट आवारा कुत्तों की समस्या पर कितनी भी सख्ती का परिचय दे, राज्यों का रवैया यही बताता है कि उनकी नजर में यह कोई बड़ी समस्या नहीं। उनका यही रवैया बेसहारा पशुओं को लेकर भी है। राज्य सरकारों का ऐसा ढुलमुल रवैया तब है, जब आवारा कुत्ते और बेसहारा पशु दुर्घटनाओं का कारण बनते रहते हैं।

उचित यह होगा कि राज्य सरकारें यह समझें कि यदि नगर निकाय अपने हिस्से की जिम्मेदारियों का निर्वाह करने के लिए सक्रिय नहीं होते तो शहरी जीवन की समस्याएं बढ़ती ही जानी हैं। यही सही समय है कि वे स्थानीय निकायों को सक्षम बनाने के साथ ही उन्हें जवाबदेह भी बनाएं।