रामानंद शर्मा। बिहार में हो रहे विधानसभा चुनाव में सत्ताधारी गठबंधन राज्य को औद्योगिक केंद्र में बदलने का स्वप्न दिखा रहा है, तो विपक्षी महागठबंधन सामाजिक न्याय और आरक्षण के अपने आजमाए हुए मुद्दों को नई धार देता दिख रहा है। किंतु इसके बीच कुछ बुनियादी प्रश्न हैं, जो बिहार के आत्मा को कुरेद रहे हैं। क्या यह चुनाव केवल सत्ता के अंकगणित का एक और अध्याय बनकर रह जाएगा या यह उस गहरी खाई को पाटने का एक ईमानदार अवसर बनेगा, जो वादों और यथार्थ के बीच दशकों से चौड़ी होती जा रही है? यह केवल व्यक्तित्वों या गठबंधनों की प्रतिस्पर्धा नहीं है, बल्कि उस समाज के लिए सामूहिक आत्म-चिंतन का एक दुर्लभ क्षण है, जो अपनी गौरवशाली सभ्यतागत विरासत और अपनी वर्तमान वास्तविकता के बीच की असहनीय दूरी से जूझ रहा है।

आज बिहार की धरती प्रवासन, बेरोजगारी और अधूरी आकांक्षाओं का प्रतीक बन गई है। इसलिए असली सवाल यह नहीं है कि कौन जीतेगा, बल्कि यह है कि क्या बिहार की राजनीति नवीनीकरण का एक शक्तिशाली साधन बन सकती है? बिहार की राजनीति में आज किसी भी दल के लिए सबसे बड़ी चुनौती नए वादे गढ़ना नहीं, बल्कि उस गहरे अविश्वास और संदेह को दूर करना है, जो दशकों के अधूरे आश्वासनों से उपजा है। हर चुनावी चक्र ‘अधूरी उम्मीदों की बढ़ती भावना’ को ही मजबूत करता है।

संकट अब उम्मीद का नहीं, विश्वसनीयता का है, जहां नागरिक अब केवल बयानबाजी नहीं, बल्कि अपनी आंखों के सामने परिवर्तन का ठोस प्रमाण मांग रहे हैं। बिहार अपनी युवा पीढ़ी को लगातार विफल कर रहा है, जिससे एक ऐसा जनसांख्यिकीय संकट पैदा हो रहा है, जिसकी विशेषता चौंकाने वाली बेरोजगारी, मजबूरन प्रवासन और व्यवस्थागत निराशा है। राज्य की बेरोजगारी दर राष्ट्रीय औसत से लगभग दोगुनी है, लेकिन इससे भी भयावह यह है कि यहां के अधिकांश युवाओं ने काम खोजने की उम्मीद ही छोड़ दी है।

बेरोजगारी सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे युवाओं में है। स्नातकों के लिए यह 14.7 प्रतिशत और स्नातकोत्तर के लिए 19 प्रतिशत तक पहुंच गई है। पटना की सड़कों पर गूंजता नारा, “करो तो सरकारी नौकरी, नहीं तो बेचो तरकारी” लाखों युवाओं के टूटे सपनों का प्रतीक बन गया है। इसी निराशा का सीधा परिणाम प्रवासन है।

जब राज्य में अवसर नहीं मिलते, तो लगभग लाखों बिहारी श्रमिक दिल्ली, पंजाब और महाराष्ट्र की अर्थव्यवस्थाओं को अपने खून-पसीने से सींचते हैं। बार-बार होने वाले परीक्षा पेपर लीक जैसी व्यवस्थागत विफलताएं युवाओं की आकांक्षाओं पर प्रणालीगत हिंसा के समान हैं। जो भूमि कभी नालंदा और विक्रमशिला जैसे ज्ञान के वैश्विक केंद्रों का घर थी, वह आज अपने बच्चों को मूलभूत शिक्षा प्रदान करने में भी विफल हो रही है, जिससे गरीबी और प्रवासन का एक अंतहीन चक्र बना हुआ है।

गणतंत्र के शुरुआती दिनों में जहां देश के विश्वविद्यालय नामांकन में बिहार का लगभग दसवां हिस्सा था, वहीं आज यह तीन प्रतिशत से भी कम रह गया है। स्कूल मौजूद हैं, शिक्षक नियुक्त हैं, पाठ्यक्रम छपे हुए हैं, लेकिन सीखने-सिखाने की जवाबदेही नदारद है। जिनके पास साधन हैं, वे अपने बच्चों को राज्य से बाहर भेजकर इस व्यवस्था से बच निकलते हैं, जबकि गरीब एक ऐसी प्रणाली में फंस गए हैं, जो ऊपर उठने का कोई वास्तविक रास्ता नहीं दिखाती है।

जब तक ज्ञान की नींव ही कमजोर हो, तब तक कौशल विकास और उद्योगीकरण की बातें बेमानी लगती हैं। किसी भी सरकार के लिए सार्वजनिक शिक्षा का पुनर्निर्माण सबसे परिवर्तनकारी कार्य हो सकता है, फिर भी यह राजनीतिक घोषणापत्रों में प्राथमिकता की दृष्टि से एकदम निचले पायदान पर है।

वर्ष 2016 में लागू की गई शराबबंदी आज इस बात का उदाहरण बन गई है कि कैसे नेक इरादों वाली नीतियां जब खराब तरीके से डिजाइन और लागू की जाती हैं, तो प्रशासनिक आपदाओं में बदल सकती हैं। शराब खत्म होने के बजाय इस प्रतिबंध ने एक समानांतर अवैध अर्थव्यवस्था को जन्म दिया है, जिसने शराब तस्करों, पुलिस और राजनेताओं के एक नए गठजोड़ का जाल बुना है। जहरीली शराब से सैकड़ों मौतें इस काले बाजार का क्रूर परिणाम हैं।

इसने अदालतों को मामलों से और जेलों को छोटे-मोटे अपराधियों से भर दिया है। मार्च 2025 तक 9,36,000 से अधिक मामले दर्ज किए गए और 14.3 लाख लोगों को गिरफ्तार किया गया था। हालांकि द लैंसेट पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन का अनुमान है कि इस प्रतिबंध ने राज्य में घरेलू हिंसा के 21 लाख मामलों को रोका है। सामाजिक दृष्टि से यह आंकड़ा बहुत महत्वपूर्ण है और बताता है कि अभी भी अधिकतर महिलाएं इस नीति का समर्थन क्यों करती हैं। पुराने स्थापित दल इस मुद्दे पर फंसे हुए हैं।

वे न तो इसकी विफलताओं को स्वीकार कर सकते हैं और न ही इसे निरस्त करने का प्रस्ताव देकर एक प्रमुख वोट बैंक को नाराज करने का जोखिम उठा सकते हैं। सवाल केवल अगले पांच साल के शासन का नहीं, बल्कि यह है कि बिहार कैसा शासन स्वीकार करने को तैयार है। यदि मतदाता जनता के प्रति जवाबदेह शासन के निर्माण में भागीदार बनते हैं, तो वे राजनीति को नवीनीकरण का एक साधन बनने के लिए बाध्य कर सकते हैं।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के आर्यभट्ट कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)