विचार: इस्लामी राजनीति की केंद्रीय समस्या, असदुद्दीन ओवैसी का बयान त्रुटिपूर्ण और भटकाने वाला
यही इस्लामी राजनीति की केंद्रीय और विश्वव्यापी समस्या है। इसलिए तसलीमा जैसे मुसलमानों पर भी जानलेवा हमले होते हैं। ऐसा दोहरा मापदंड मानवता कब तक झेल पाएगी? ‘आइ लव मोहम्मद’ और ‘आइ लव मोदी’ की असदुद्दीन ओवैसी की तुलना त्रुटिपूर्ण और भटकाने वाली है। जो प्रश्न तसलीमा जैसे मुस्लिमों ने अपने अध्ययन, अवलोकन और जीवन भर के अनुभवों से उठाए हैं, वे कोई अपवाद नहीं हैं।
HighLights
- <p>ओवैसी का बयान त्रुटिपूर्ण और भटकाने वाला</p>
- <p>इस्लामी राजनीति की चुनौतियों पर प्रकाश</p>
- <p>सही दिशा में मार्गदर्शन की आवश्यकता</p>
शंकर शरण। मुस्लिम नेता असदुद्दीन ओवैसी ने कहा है कि ‘इस देश में ‘आइ लव मोदी’ तो बोल सकते हैं, पर ‘आइ लव मोहम्मद’ नहीं।’ उनकी यह बात सही है कि मोदी ही नहीं, बल्कि मोहम्मद के प्रति भी प्रेम व्यक्त करने की वही स्वतंत्रता होनी चाहिए, किंतु तुलना के लिए दिया गया उदाहरण अनुपयुक्त है।
ओवैसी भूल जाते हैं कि जब तसलीमा नसरीन जैसा कोई मोहम्मद के प्रति उदासीनता दिखाता है तो उसका क्या हश्र होता है। जब तसलीमा अपनी पुस्तक विमोचन में हैदराबाद गई थीं, तब ओवैसी की पार्टी के कार्यकर्ताओं और छोटे ओवैसी यानी अकबरुद्दीन ने उन पर जानलेवा हमला किया था और कहा था कि ‘अगली बार वे जिंदा बचकर नहीं जाएंगी।’ क्या तसलीमा का हैदराबाद जाना, वहां अपनी पुस्तक के समारोह में भाग लेना अथवा अपने जीवन के अनुभवों और अध्ययन के निष्कर्ष लिखना गैर-कानूनी था?
ओवैसी के रुख से लगता है कि जो वे चाहें, वही होना चाहिए। एक बौद्धिक नेता होने के कारण ओवैसी यह बखूबी समझते हैं कि ऐसी मनमानी या दोहरापन किसी भी समाज के लिए अहितकर है। इससे सामुदायिक सद्भाव और मेल-जोल खंडित होता है। वे अपने लोकसभा क्षेत्र के मुसलमानों ही नहीं, हिंदुओं के भी प्रतिनिधि हैं। तब चुन-चुन कर कानून की दुहाई देना उन्हें विश्वसनीय नहीं बना सकता। ‘आइ लव मोहम्मद’ के मामले में कानूनी आधार को लाने पर उचित प्रतिरूप मोदी नहीं, बल्कि तसलीमा नसरीन हो सकती हैं। एक आत्म-कथात्मक निबंध में तसलीमा ने कई उदाहरण देकर यह कहा था कि उन्हें मोहम्मद के दावों पर विश्वास नहीं हुआ। इसलिए उन्होंने मोहम्मद के प्रति उदासीनता व्यक्त की। यदि किसी को मोहम्मद से मोहब्बत करने का अधिकार है, तो उनसे असहमत होने का भी अधिकार मिलना चाहिए।
तसलीमा ने इस बात को नैतिक और सैद्धांतिक रूप से भी रखा था कि ‘कोई भी व्यक्ति आलोचना से ऊपर नहीं है-न कोई इंसान, न कोई संत, न कोई मसीहा, न कोई प्रोफेट, न गाड। संसार को बेहतर बनाने के लिए हर तत्व का आलोचनात्मक परीक्षण आवश्यक है।’ उनकी यह बात कानूनसम्मत ही नहीं, मानवीय अस्मिता का आधार है। उपनिषद से लेकर प्लेटो और श्रीअरविंदो जैसे मनीषियों ने प्रश्न उठाने, आलोचना करने का स्वागत किया है। कठिन से कठिन, असुविधाजनक प्रश्न उठाने के लिए यमराज नचिकेता की प्रशंसा करते हुए कहते हैं: ‘तुम्हारे जैसे प्रश्न उठाने वाले हुआ करें।’ जब यूरोप चर्च की जकड़ से निकला, तभी उसकी सर्वतोमुखी उन्नति हुई।
ज्ञान-विज्ञान का अभूतपूर्व विकास हुआ। अभी भी अधिकाशं आविष्कार उसी समाज में हो रहे हैं, जहां प्रश्न उठाने की स्वतंत्रता है। पूरा मुस्लिम जगत इसमें सिफर रहा है। अनेक मुस्लिम देश अत्यंत समृद्ध हैं, पर वहां ज्ञान-विज्ञान में योगदान सदियों से शून्य है। ठीक उसी कारण से, जो तसलीमा पर छोटे ओवैसी के हमले से जुड़ा है।
भारतवासियों का ही नहीं, पूरी मानवता का हित इसी में है कि सबको समान अधिकार हो। किसी महापुरुष से, किसी किताब से, किसी सिद्धांत से प्रेम करने का ही नहीं, उससे असहमत होने का भी। किसी को ऐसा अधिकार नहीं हो सकता, जो दूसरों को न मिले। यदि ओवैसी किसी व्यक्ति को पसंद करते हैं, तो दूसरों के लिए भी उसी व्यक्ति को पसंद न करने का समान अधिकार भी है। अन्यथा यह दूसरों पर अपनी पसंद थोपना हो जाएगा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एकतरफा नहीं होती। जैसा जार्ज आरवेल ने कहा था: ‘यदि स्वतंत्रता का कोई अर्थ है तो वह यही है कि वह बातें कहने का अधिकार हो जो लोग सुनना नहीं चाहते।’ यानी असुविधाजनक सत्य।
यही बात ‘आइ लव मोहम्मद’ वाले मामले को सही संदर्भ में रखती है। मोहम्मद साहब की जीवनी (सीरा) में उनके जीवन भर के कथनों और कार्यों का पूर्ण विवरण है। उनके आदेशों और कर्मों से उन्हें सबके लिए अपना प्रिय पात्र बनाना मुश्किल है, विशेषकर काफिरों यानी गैर-मुस्लिमों और इस्लाम को त्यागने वालों के लिए।
चूंकि ओवैसी कोई कट्टरपंथी मौलाना नहीं, इसलिए कानूनी और गैर-कानूनी ही नहीं, बल्कि मानवीय-अमानवीय, नैतिक-अनैतिक, न्यायपूर्ण-अन्यायपूर्ण जैसी सच्चाइयों को भी समझते होंगे। किसी फेथ के ठीक विपरीत भी फेथ और समुदाय हैं। दुनिया में बुतशिकन ही नहीं, बुतपरस्त भी हैं। सभी मानव हैं। मानवता के दो नैतिक मानक नहीं हो सकते, जैसे कोई मानव शरीर दो हृदयों के साथ नहीं जी सकता। मानवता का हृदय, उसके नैतिक, बौद्धिक मानदंड एक ही हो सकते हैं। मानवता का भाग होने के नाते सभी समुदायों के लिए एक ही स्वर्णिम नियम है: ‘दूसरों के साथ वैसा ही करो, जैसा तुम चाहते हो कि वे तुम्हारे साथ करें।’
ओवैसी को भी उसी निष्ठा से इस स्वर्ण नियम का पालन करना चाहिए, जितनी तसलीमा करती हैं। जैसा मोदी के समर्थक और विरोधी, दोनों करते हैं। राजनीतिक, कानूनी और नैतिक विषयों की एक लंबी लिस्ट है, जिसमें अधिकांश मुस्लिम नेता एक विशेषाधिकारयुक्त दृष्टिकोण अपनाते हैं। वे अलग, ऊंचा व्यवहार पाने का दावा करते हैं-कानून और संविधान से ऊपर। इसमें संविधान, राष्ट्रगान, योग आदि विषय आ जाते हैं। जिसे वे अन्य धर्मों के प्रतीक मानकर घृणित शब्दों में संबोधित करते हैं। यही इस्लामी राजनीति की केंद्रीय और विश्वव्यापी समस्या है।
इसलिए तसलीमा जैसे मुसलमानों पर भी जानलेवा हमले होते हैं। ऐसा दोहरा मापदंड मानवता कब तक झेल पाएगी? ‘आइ लव मोहम्मद’ और ‘आइ लव मोदी’ की असदुद्दीन ओवैसी की तुलना त्रुटिपूर्ण और भटकाने वाली है। जो प्रश्न तसलीमा जैसे मुस्लिमों ने अपने अध्ययन, अवलोकन और जीवन भर के अनुभवों से उठाए हैं, वे कोई अपवाद नहीं हैं। दिनों-दिन नए-नए मुस्लिम लेखक और वक्ता उससे भी अधिक सीधे प्रश्न उठा रहे हैं, किंतु धमकियों और हिंसा के अलावा उलमा या मुस्लिम नेताओं के पास कोई उत्तर नहीं। यह स्थिति लंबे समय तक स्थिर नहीं रह सकती। ओवैसी और अन्य मुस्लिम नेताओं को इस पर न्यायसंगत और तर्कसंगत रूप से विचार करना होगा, क्योंकि ऐसे प्रश्न नए नहीं हैं।
(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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