विचार: बैंकों से बेहतर है सहकारी नेटवर्क, बेहतर बदलाव की पहल
पारदर्शी आडिट, पदाधिकारियों का रोटेशन एवं सरकार से कार्यशील पूंजी सहयोग जैसी पहलें भरोसा बहाल कर सकती हैं। प्रशिक्षण शिविर सहकारिता प्रबंधन में ईमानदारी और दक्षता बढ़ाएंगे। असली वित्तीय समावेश तभी होगा हम जब उन संस्थाओं को मजबूत करें, जो अपने लोगों को जानती हैं, क्योंकि क्रेडिट केवल पूंजी नहीं, भरोसा भी है।
HighLights
विश्वकर्मा योजना: कारीगरों के लिए नई उम्मीद
अनुरोध ललित जैन। बढ़ई, कुम्हार, सुनार और दर्जी आदि 18 पारंपरिक पेशे से जुड़े लोगों के लिए प्रधानमंत्री विश्वकर्मा योजना एक नई उम्मीद लेकर आई थी। इसके तहत इन्हें कौशल प्रशिक्षण, आधुनिक औजार और बिना जमानत के छोटा ऋण देने का प्रविधान है, ताकि वे आज की तकनीकी दुनिया में फिर से खड़े हो सकें। सितंबर 2023 में 13,000 करोड़ रुपये के बजट के साथ शुरू हुई इस योजना का लक्ष्य देश के ग्रामीण जीवन से संबंधित पारंपरिक पेशे थे।
दो साल बाद कागज पर तो आंकड़े उत्साहजनक दिखते हैं, क्योंकि इस योजना के तहत तीन करोड़ से ज्यादा पंजीकरण हुए हैं, पर सच्चाई कुछ और है। अब तक सिर्फ 4.65 लाख कारीगरों को 4,000 करोड़ रुपये के ऋण स्वीकृत हुए हैं, जिनमें 2,200 करोड़ रुपये ही वास्तव में वितरित हुए और मात्र 224 करोड़ रुपये की वापसी हुई है। पंजीकरण और वास्तविक कर्ज वितरण के बीच यह फासला सिर्फ प्रशासनिक नहीं, बल्कि संरचनात्मक कमी दर्शाता है। यह बताता है कि भारत में आर्थिक कल्याणकारी योजनाओं का सबसे बड़ा रोड़ा बैंकिंग व्यवस्था ही है।
निजी बैंक सरकार का विरोध नहीं कर रहे, बस नियमों का चतुराई से पालन कर रहे हैं। आरबीआइ ने सभी बैंकों को आदेश दिया है कि वे अपनी कुल ऋण पुस्तिका का 40 प्रतिशत कृषि, लघु उद्योग क्षेत्र के साथ कमजोर वर्गों को दें। निजी बैंक प्राथमिकता क्षेत्र के लिए निर्धारित ऋण लक्ष्य को पूरा करने के बजाय प्राथमिकता क्षेत्र ऋण प्रमाणपत्र खरीद लेते हैं। ये प्रमाणपत्र वे उन सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से खरीद सकते हैं, जिन्होंने अपने लक्ष्य से अधिक ऋण वितरित किया हो।
कुछ बैंक अपने दायित्व को गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों या माइक्रोफाइनेंस संस्थानों के माध्यम से पूरा करने का दावा करते हैं। कागज पर वे नियम पूरा करते हैं, लेकिन हकीकत में विश्वकर्मा ऋण देने के मामले में निजी बैंकों का रिकार्ड निराशाजनक है। पीएम जन धन योजना में भी निजी बैंकों की हिस्सेदारी मुश्किल से तीन प्रतिशत है। निजी बैंकों का तर्क है कि दो लाख रुपये का एक छोटे कारीगर को दिया गया ऋण उतने ही कागजी काम और लागत मांगता है, जितना 20 लाख का कार लोन, पर मुनाफा बहुत कम।
कारीगरों के पास न जमानत होती है, न डिजिटल ऋण इतिहास, जिससे जोखिम बढ़ जाता है। सरकारी गारंटी भी केवल आंशिक नुकसान कवर करती है। ऐसे में शेयरधारकों से संचालित संस्थानों के लिए यह काम आकर्षक नहीं है। इसके उलट सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक लगभग पूरा बोझ उठाते हैं-चाहे जन धन, मुद्रा या विश्वकर्मा जैसी योजनाएं हों, लेकिन सीमित स्टाफ और सख्त नियामक बोझ के कारण उनकी क्षमता सीमित है। जब कर्ज अटकता है तो जनता के सामने दोष बैंक या सरकार, दोनों को झेलना पड़ता है।
जब निजी बैंक पीछे हट रहे हों और सार्वजनिक बैंक थक चुके हों, तो समाधान सहकारिता ढांचे में है। यह भारत की सबसे पुरानी और भरोसेमंद वित्तीय व्यवस्था है। सहकारी ऋण समितियां और जिला सहकारी बैंक ‘सामाजिक गारंटी’ पर काम करते हैं, जहां हर सदस्य की गारंटी दूसरा सदस्य देता है। यह सामुदायिक भरोसा उन कारीगरों के लिए अधिक उपयोगी है, जिनके पास औपचारिक रिकार्ड नहीं है। इन संस्थाओं में डिफाल्ट दर औसतन दो प्रतिशत के आसपास रहती है, जो अधिकांश सूक्ष्म ऋणों से बेहतर है।
कई राज्यों में सहकारी संस्थाएं डेरी, हैंडलूम और ग्रामीण उद्यमों में गहराई से जुड़ी हैं। उन्हें स्थानीय व्यापार और मौसमी आय का अनुभव है। एक कुम्हार या बढ़ई भले फिनटेक न समझे, सहकारी संस्था को समझता है। यदि विश्वकर्मा योजना को इन सहकारी नेटवर्क से जोड़ा जाए तो यह योजना वास्तव में जन-संचालित बन सकती है, जैसे उत्तर प्रदेश के बुनकर समाज या गुजरात की डेरी सहकारिताओं में हुआ है।
सरकार को चाहिए कि सहकारी और जिला केंद्रीय बैंकों को निर्धारित बैंकों की तुलना में बेहतर ऋण गारंटी दे, क्योंकि इनका सामाजिक आधार अधिक गहरा है। नाबार्ड या सिडबी के माध्यम से कारीगर ऋणों के लिए पुनर्वित्त सुविधा खोली जा सकती है। प्राथमिक कृषि ऋण समितियों का डिजिटलीकरण 80 प्रतिशत पूरा हो चुका है। इन्हें भी सरकारी योजनाओं से जोड़ा जाए। जो सहकारिताएं ऋण वितरण और वसूली में अच्छा प्रदर्शन करें, उन्हें ब्याज सब्सिडी या प्रशासनिक सहायता दी जा सकती है।
सरकार एनईएफटी/आरटीजीएस शुल्क, केवाईसी सत्यापन और क्रेडिट ब्यूरो फीस जैसी छोटी, पर बार-बार आने वाली लागतें भी सहकारिताओं के लिए माफ कर सकती है। एक विशेष कोष बनाकर उन सहकारिताओं के प्रशासनिक खर्च का कुछ हिस्सा वापस किया जा सकता है, जो वित्तीय समावेशन के लक्ष्य पूरे करती हैं। यह सच है कि कई सहकारी संस्थाएं पूंजी की कमी, कमजोर प्रबंधन या डिजिटलीकरण की कमी से जूझ रही हैं, पर इन्हें सुधारा जा सकता है।
पारदर्शी आडिट, पदाधिकारियों का रोटेशन एवं सरकार से कार्यशील पूंजी सहयोग जैसी पहलें भरोसा बहाल कर सकती हैं। प्रशिक्षण शिविर सहकारिता प्रबंधन में ईमानदारी और दक्षता बढ़ाएंगे। असली वित्तीय समावेश तभी होगा हम जब उन संस्थाओं को मजबूत करें, जो अपने लोगों को जानती हैं, क्योंकि क्रेडिट केवल पूंजी नहीं, भरोसा भी है।
(लेखक ऑल इंडिया कांग्रेस माइनारिटी सेल के उपाध्यक्ष हैं)













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